मनुष्य अपने जंगल, गुफा वाले दिनों में अधिक डरता था, या अब. जबकि वह उन दिनों के खतरों के मुकाबले कहीं सुरक्षित जीवन की ओर बढ़ रहा है. डर, मनुष्य के स्वभाव का आदि काल से ही हिस्सा रहा है. हमारी अधिकांश प्रार्थनाओं में सूरज है, क्योंकि वह हमें अंधेरे के डर से बचाने वाला है. जो डर से मुक्त करता है, उससे बड़ा सम्मानीय कोई नहीं. लेकिन जैसे-जैसे हम रोशनी के लिए दूसरी चीज़ों की ओर मुड़ते गए, सूरज के प्रति हमारा रवैया कितना बदला, इस पर अभी अधिक अध्ययन की जरूरत है, लेकिन इतना कहना तो संभव है ही कि अब सूरज की प्रतीक्षा वैसी नहीं रहती, जिस तरह उन दिनों में होती थी, जब घने अंधेरे जंगल, उससे सटे गांव रातभर तूफानी बारिश में अंधेरे में डूबे रहते. हमसे कहीं बलशाली जानवरों की आहट से हम सिहरते रहे होंगे.
‘जीवन संवाद’ के सजग, सुधी पाठक निर्मल शुक्ल धौलपुर, राजस्थान ने ई-मेल लिखा है, ‘मेरे एक दोस्त हैं. वह अपने डर के लिए हमेशा कोई न कोई बहाना खोज लेते हैं. कभी उनको अपनी तबियत खराब होने का डर होता है तो कभी नौकरी से निकाले जाने का. कभी इस बात का कि कहीं एक रोज उनकी मौत न हो जाए. वह मौत से इतना डरते हैं कि किसी दिन उनकी मौत के डर से ही मौत न हो जाए.’निर्मल ने पते की बात कही है. हम सबके डर ऐसे ही हैं. लेकिन डर की महफिल से बाहर जाने का रास्ता क्या है, कैसे बाहर निकलेंगे, इनसे!
डर दो तरह के होते हैं- पहला वास्तविक, दूसरा आभासी!
रास्ते में चलते हुए टक्कर न हो जाए, क्योंकि उसी रास्ते पर आप चल रहे हैं, उसी पर दूसरे वाहन. ऐसा करते हुए आपकी सावधानी के बाद भी टक्कर से इंकार नहीं किया जा सकता.
दूसरा डर कहीं भूकंप न आ जाए. अब भूकंप बताकर तो आता नहीं. आपके सही गलत सोने/चलने से नहीं आता. लेकिन जब हम अपने मन को खतरों के डर से जोड़ देते हैं, तो उसके तार वैसे ही इधर-उधर उलझने लगते हैं, जिस तरह निर्मल के मित्र के उलझ रहे हैं.यही है, अदृश्य डर. यानी भावी दुख का डर. मन में विश्वास की कमी से ऐसे डर उपजते हैं. चित्त में गहरे बैठते जाते हैं.
यह भी संभव है कि उनका अवचेतन मन से कोई रिश्ता रहा हो. जैसे शहर में रहने वाले लोग एक बार यह जरूर देखते हैं कि रात को सोते समय उनके घर का दरवाजा ठीक से बंद है कि नहीं. ऐसा होने के पीछे जरूरी नहीं कि उनके घर कभी चोरी हुई हो, बल्कि इसका कारण यह होता है कि बचपन से ऐसा देखते आए हैं. दूसरी ओर गांव में अभी भी यह चलन नहीं है. वहां के जीवन में अभी भी विश्वास, निश्चिंतता
#जीवनसंवाद: भावी दुख का डर!

जीवन संवाद
#JeevanSamvad: अपने आधुनिक होने के सफर में हमने जिस एक चीज को अपने से सबसे अधिक जोड़ा, वह है- अदृश्य डर. यानी भावी दुख का डर.
- NEWS18HINDI
- LAST UPDATED: MARCH 17, 2020, 4:37 PM IST
‘जीवन संवाद’ के सजग, सुधी पाठक निर्मल शुक्ल धौलपुर, राजस्थान ने ई-मेल लिखा है, ‘मेरे एक दोस्त हैं. वह अपने डर के लिए हमेशा कोई न कोई बहाना खोज लेते हैं. कभी उनको अपनी तबियत खराब होने का डर होता है तो कभी नौकरी से निकाले जाने का. कभी इस बात का कि कहीं एक रोज उनकी मौत न हो जाए. वह मौत से इतना डरते हैं कि किसी दिन उनकी मौत के डर से ही मौत न हो जाए.’
निर्मल ने पते की बात कही है. हम सबके डर ऐसे ही हैं. लेकिन डर की महफिल से बाहर जाने का रास्ता क्या है, कैसे बाहर निकलेंगे, इनसे!
डर दो तरह के होते हैं- पहला वास्तविक, दूसरा आभासी!
रास्ते में चलते हुए टक्कर न हो जाए, क्योंकि उसी रास्ते पर आप चल रहे हैं, उसी पर दूसरे वाहन. ऐसा करते हुए आपकी सावधानी के बाद भी टक्कर से इंकार नहीं किया जा सकता.
दूसरा डर कहीं भूकंप न आ जाए. अब भूकंप बताकर तो आता नहीं. आपके सही गलत सोने/चलने से नहीं आता. लेकिन जब हम अपने मन को खतरों के डर से जोड़ देते हैं, तो उसके तार वैसे ही इधर-उधर उलझने लगते हैं, जिस तरह निर्मल के मित्र के उलझ रहे हैं.यही है, अदृश्य डर. यानी भावी दुख का डर. मन में विश्वास की कमी से ऐसे डर उपजते हैं. चित्त में गहरे बैठते जाते हैं.
यह भी संभव है कि उनका अवचेतन मन से कोई रिश्ता रहा हो. जैसे शहर में रहने वाले लोग एक बार यह जरूर देखते हैं कि रात को सोते समय उनके घर का दरवाजा ठीक से बंद है कि नहीं. ऐसा होने के पीछे जरूरी नहीं कि उनके घर कभी चोरी हुई हो, बल्कि इसका कारण यह होता है कि बचपन से ऐसा देखते आए हैं. दूसरी ओर गांव में अभी भी यह चलन नहीं है. वहां के जीवन में अभी भी विश्वास, निश्चिंतता गहरी है. इसके बाद भी कि वहां भी इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं.
आप इस बात से थोड़े असहमत हो सकते हैं, लेकिन सच मानिए कि अदृश्य डर/भविष्य की अनिश्चितता से जितना शहरी डरते हैं. दूसरा कोई नहीं डरता.
थोड़ा सोचिए किसान कितनी मुश्किल स्थिति में काम करते हैं. बारिश किसी भी दिन उनकी मेहनत को विफल करने की योग्यता रखती है. उसके बाद भी हमारा ग्राम्य जीवन कहीं अधिक सुखी है. वहां तनाव का स्तर हमारे तनाव, चिंता और डायबिटीज के मुकाबले कहीं कम है. हमारे डर का ठोस कारण जीवन के प्रति आस्था, विश्वास और परस्पर प्रेम की कमी है. जहां प्रेम की कमी होगी. भरोसा नहीं होगा, वहां डर गहरा होता जाएगा.