दूरदर्शन पर एक बार फिर संसार की महानतम कथा में से एक महाभारत लौट कर आ गई है. इसे देखने से कहीं अधिक जरूरी, इसे पढ़ना, समझना, जीवन के लिए इसके सूत्र सहेजना है. ऐसा इसलिए, क्योंकि बीआर चोपड़ा की तमाम कोशिशों, राही मासूम रजा़ की अदभुत पटकथा के बाद भी यह उस महाभारत से कहीं दूर है, जो महर्षि वेद व्यास ने लिखी.
मनुष्य, मनुष्यता के लगभग सभी सवालों के जवाब सहेजने वाली महाभारत को काश! हमारे घर में रखने की सहज अनुमति होती. अभी यही माना जाता है कि इसे घर में नहीं रखना चाहिए. बहुत कम लोग हैं, जिनके यहां ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, नीति, संघर्ष, सहज ज्ञान, मनोविज्ञान और सबसे बढ़कर मनुष्य के गुणों को बार-बार दोहराने वाली ‘महाभारत’ मिलेगी.
इस पर विस्तार से संवाद फिर कभी. इस लेखक ने एक बरस पहले महाभारत की ओर देखना शुरू किया. अब मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इसके पास हमारे जटिलतम प्रश्नों, संकटों के उत्तर हैं. हम ‘जीवन संवाद’ के आगामी अंकों में इस पर संवाद करेंगे. मैंने देशभर में होने वाले ‘जीवन संवाद’ के सत्रों में महाभारत की जीवन के लिए अपनी तरह से व्याख्या का विनम्र प्रयास किया है. मुझे आपसे यह साझा करते हुए खुशी हो रही है कि इसे काफी पसंद किया जा रहा है.
अब आते हैं, आज के संवाद पर. कोरोना संकट के इस समय में हमारे संकट अलग–अलग हैं. किसी की नौकरी पर तलवार लटक रही है. तो कोई अपने व्यापार को लेकर गहरे तनाव में है. लाखों लोग गहरे अनिश्चय में हैं. सबकी अपनी-अपनी चिंता है. संकट हैं. ऐसे में अपने भीतर त्रासदी के अनुभव संजोए महाभारत क्या कहती है.
वह कहती है, ‘सुख दुखे समे कृत्वा, लाभा लाभौ जया जयो’. इसका अर्थ हुआ, सुख-दुख, लाभ-अलाभ, जय अथवा पराजय को समान भाव से लेना चाहिए. जब पांडवों को बार-बार सत्ता से वंचित कर दिया जाता है, उन्हें वन गमन के लिए विवश किया जा रहा है, वहां महाभारत कह रही है, घोर संकट में पड़कर दुख मत करना. आत्मज्ञानी शौनक युधिष्ठर को समझाते हुए कह रहे हैं, ‘सामान्य मनुष्य के जीवन में हर दिन सैकड़ों, हजारों शोक और भय के अवसर आते रहते हैं, लेकिन ज्ञानियों के साथ ऐसा नहीं है. आपको शरीर से अधिक मन का ख्याल रखना चाहिए. मानसिक दुख शरीर के दुख का सबसे अधिक कारण बनता है. लोहे का गरम गोला यदि घड़े के शीतल जल में डाल दिया जाए तो वह जल भी गरम हो जाता है. वैसे ही मानसिक पीड़ा से शरीर भी व्यथित हो जाता है. मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख अपने आप मिट जाता है.
करोना, गहरे आर्थिक, सामाजिक संकट लेकर आया है. इससे एकदम इनकार नहीं. लेकिन यह संकट बहुत अधिक शहरी है. गांव और शहर में क्या अंतर होता है? मेरे लिए केवल इतना कि गांव में आशा, आस्था और विश्वास का रंग कहीं गहरा होता है जबकि शहर इच्छा के भंवर में कहीं गहरे गुंथे होते हैं. शहर ने अपनी मनमौजी इच्छा को जरूरत का नाम दे दिया है. गांव का आदमी आसानी से हार नहीं मानता. वह हर बरस खेती उसी आस्था से करता है, वह बारिश का मुंह देखकर खेती नहीं करता. दूसरी ओर शहर ने अपने लोक जीवन को धीरे-धीरे खत्म होने दिया.
गांव में आपके पास विकल्प होते हैं. शहर में चुनने का काम धीरे-धीरे बंद होता गया. शहर में काम या तो होता है, या नहीं होता. गांव अभी भी दूसरे के सुख का ख्याल भले न करें लेकिन दूसरे की भूख से दूर नहीं गए हैं. जबकि शहर पड़ोसी की भूख से दूर निकल गए हैं.
इस पर खूब सोचिए, समझिए कि कोई भी संकट जीवन से बड़ा नहीं है. जिंदगी रही तो सब हासिल हो जाएगा. महाभारत यही समझाती है. बस, हमें थोड़े शीतल, सजग मन से सुनने का अभ्यास करना है.